समोसा

कहानी

Akhilesh Srivastava Chaman

6/21/20241 मिनट पढ़ें

आज कल के जुलाई २०२४ अंक में छपी कहानी।

महीने के पहले हफ्ते में धन्ना सेठ दूसरे हफ्ते में मितव्ययी तीसरे हफ्ते में कंजूस और चैथे हफ्ते में पूरे मक्खीचूस। सूखाग्रस्त सरकारी दफ्तरों जहाॅं ऊपरी आमदनी की बारिश या पत्रम-पुष्पम के बौछार की गंुजाइश नहीं होती है के कर्मचारियों की माली हालत कुछ ऐसी ही होती है। ठीक अपने समाज की ही तरह सरकारी दफ्तरों में भी बहुत बे-इन्साफी है। जैसे हमारे समाज में किसी के पास कुछ नहीं किसी पे बेहिसाब है। वही हाल सरकारी दफ्तरों की भी है। सुविधा शुल्क और चढ़ावे के मामले में कुछ सरकारी दफ्तर चेरापूॅंजी हैं तो कुछ थार के रेगिस्तान। कुछ दफ्तरों के कर्मचारी ऊपरी कमाई की बाढ़ में ऊभ-चूभ होते रहते हैं तो कुछ दफ्तरों के कर्मचारी बेचारे एक कतरा तक के लिए तरस जाते हैं। हमारे कथा नायक सुनील कुमार माथुर उर्फ सुनील बाबू एक ऐसे ही सरकारी दफ्तर में मुलाजिम थे जहाॅं सूखी तनख्वाह के अलावे एक पैसा भी ऊपरी आमदनी की गुंजाइश नहीं थी।

पूरे महीने भर सवेरे दस बजे से शाम पाॅंच बजे तक चाकरी बजाने के बाद हर पहली तारीख को पगार के रूप में एक तयशुदा लक्ष्मी के दर्शन होते थे सुनील बाबू को। पगार हाथ में आते ही कुछ जरूरी घरेलू खर्चे पत्नी याद दिला देती थी कुछ फरमाइशें बच्चों की ओर से आ जाती थीं और कुछ दबीं सोयीं चाहतें खुद उनकी जेहन में कुनमुनाने लगती थीं। नतीजा यह होता था कि पहले और दूसरे हफ्ते में तबियत थोड़ी शाहखर्च हो जाया करती थी। उसके बाद सुनील बाबू खर्चों पर लगाम लगाना शुरू करते थे लेकिन महीने का आखिरी हफ्ता आते-आते हाथ तंग हो ही जाता था। आखिरी हफ्ते से ही अगले माह की पहली तारीख आने में शेष बचे दिनों की गिनती शुरू हो जाया करती थी।

हालांकि परिवार बड़ा नहीं था। सुनील बाबू ने ‘हम दो हमारे दो’ के फार्मूले का सख्ती से पालन किया था। पति-पत्नी दस साल के बेटे और आठ साल की बेटी सहित बस चार अदद लोगों का ही परिवार था उनका। फिर भी बॅंधी-बॅंधाई पगार में काफी कतर-ब्यौंत करने के बाद जैसे-तैसे ही गुजारा हो पाता था। वेतन में वृद्धि तो साल में एक बार होती थी लेकिन बाजार में चीजों के दाम हर महीने बढ़ जाया करते थे। जेब की सेहत बाजार के मुकाबले निरंतर कमजोर होती जा रही थी। बेचारे सुनील बाबू की आधी पगार तो बच्चों की फीस ड्रेस किताबें कापियाॅं और उनके स्कूल की चोंचलेबाजी की ही भेंट चढ़ जाया करती थी। घर-गृहस्थी के बाकी खर्चों की गाड़ी शेष बची आधी पगार के भरोसे ही खींचनी पड़ती थी।

महीने की अट्ठाइसवीं तारीख थी। सुनील बाबू के आफिस से लौटते ही पत्नी ने जरूरत के सामानों की एक लिस्ट सामने धर दी थी। पिछले पाॅंच या छः दिनों से बाजार का रुख नहीं किया था सुनील बाबू ने। ऐसे में घर की रसोई में रोजमर्रा की आवश्यक चीजों का समाप्त होना स्वाभाविक ही था। हर महीने ऐसा ही होता है। पहले और दूसरे हफ्ते में लगभग रोज बाजार का चक्कर लगता है। तीसरे हफ्ते में यदा-कदा बाजार जाना होता है। और आखिरी हफ्ते में बाजार जाने की क्रिया पर पूर्ण विराम लग जाया करता है। लेकिन भूख लगने प्यास जगने तथा चुल्हा के जलने पर तो विराम लग नहीं सकता था। और चुल्हा जलता रहे पेट का गड्ढ़ा भरता रहे इसके लिए जरूरी सामानों की जरूरत भी होनी ही थी।

हाॅं तो महीने की अट्ठाइसवीं तारीख को आफिस से लौटते ही पत्नी ने सामानों की जो लिस्ट पकड़ायी उसे देख कर सुनील बाबू दहल गए थे। जेब में जितनी जमा-पूॅंजी थी उसके हिसाब से सामानों की लिस्ट काफी भारी थी। मन ही मन उन्होंने संभावित खर्च का अनुमान लगाया और अपनी जेब के वजन से उसका तालमेल बिठाने लगे। सोचने लगे कि लिस्ट में लिखी किन-किन चीजों को हटाया जा सकता था। और जिन चीजों को पूरी तरह हटा सकना संभव नहीं था उनकी मात्रा में किस सीमा तक कटौती की जा सकती थी। मसलन आटा पाॅंच किलो लिखा था उसे तीन किलो किया जा सकता था अरहर की दाल एक किलो लिखी थी उसे आधा किलो किया जा सकता था सौ ग्राम जीरा और सौ ग्राम हल्दी पावडर को घटा कर पचास-पचास ग्राम तक लाया जा सकता था और सूजी बिस्किट मूॅंगफलीदाना तथा रिफाइण्ड को फिलहाल पूरी तरह से खारिज किया जा सकता था। कुछ इसी प्रकार की कतर-ब्यौंत आलू प्याज और हरी सब्जियों की मात्रा में भी करनी होगी।

लेकिन लिस्ट के सामानों में कतर-ब्यौंत करना इतना आसान नहीं था। वैसा करने में एक खतरा भी था। वह खतरा था पत्नी के गुस्सा होने का। उसकी ड़ाॅंट-फटकार का। सुनील बाबू की मजबूरी अपनी जगह थी और उनकी पत्नी की मजबूरी अपनी जगह। आखिर उस बेचारी को चुल्हा तो जलाना ही था। पेट तो सभी का भरना ही था।

सुनील बाबू क्या करें कैसे करें की उधेड़बुन में पड़े थे कि सहसा उनके दिमाग में एक उपाय कौंधा। वह उपाय यह था कि क्यों न बाजार जाते समय सामानों की लिस्ट चुपचाप घर पर ही छोड़ दें। इससे सुविधा यह रहेगी कि जेब की औकात के अनुसार आधा सामान लायेंगे और आधा नहीं लायेंगे। पत्नी के पूछने पर कह देंगे कि गलती से लिस्ट घर पर ही छूट गयी थी इसलिए बाकी सामानों का उन्हें ध्यान ही नहीं रहा था। इस प्रकार साॅंप भी मर जाएगा और लाठी भी नहीं टूटेगी। बात तीन-चार दिनों के लिए टल जाएगी और तब तक हाथ में पगार आ जाएगी। आइडिया बहुत अच्छा था। इस मासूम बहानेबाजी में किसी प्रकार के खतरे की भी गंुॅंजाइश नहीं थी। इस अचानक उपजी आइडिया से सुनील बाबू के मन में इतनी खुशी हुयी कि पूछो मत।

‘‘अच्छा चलो, पहले एक प्याली चाय पिलाओ फिर बाजार जाते हैं।’’ सुनील बाबू ने पत्नी से कहा और सामानों की लिस्ट ले कर सोफे पर बैठ गए।

थोड़ी देर में चाय आ गयी। साथ में चार चम्मच मिक्चर नमकीन धरी प्लेट भी थी। सुनील बाबू चाय पीते रहे नमकीन टूॅंगते रहे और लिस्ट को पढ़ते रहे। चाय पी चुकने के बाद उन्होंने लिस्ट को मोड़ा चुपचाप नमकीन की प्लेट के नीचे दबाया और झोला उठा कर बाजार के लिए निकल गए।

बाजार के पहले नुक्कड़ पर पहॅंुचते ही नाक में घुस रही सोंधी खुशबू ने सुनील बाबू के आगे बढ़ते पाॅंवों पर ब्रेक लगा दिया। मन में लालच पैदा करती जिह्वा की आतुरता जगाती वह खुशबू नुक्कड़ पर स्थित मेंगाराम के समोसे की दुकान से आ रही थी।

मेंगाराम समोसे वाला पूरे शहर में मशहूर था। सवेरे से लेेेेेे कर देर शाम तक उसके यहाॅं समोसे के छनने और उसे खरीदने वालों का ताॅंता नहीं टूटता था। महीने के आखिरी हफ्ते में सुनील बाबू जो बाजार की तरफ जाने से यथासंभव बचा करते थे उसके कारणों में एक बड़ा कारण मेंगाराम का समोसा भी होता था। उसकी गुड़ और इमली की खट्टी-मीठी चटनी तथा छोटे आकार के सोंधे कुरकुरे समोसे के दीवाने थे सुनील बाबू। शायद ही कभी ऐसा हुआ होगा कि सुनील बाबू मेंगाराम की दुकान के सामने से गुजरे हों और समोसा-चटनी पैक करा के घर न ले आए हों। कमबख़्त मेंगाराम के समोसे हर महीने सुनील बाबू की बजट में सेंध लगा दिया करते थे।

घी भरी कड़ाही भट्ठी पर चढ़ी थी और उसके अंदर खदबदा रहे समोसों की हवा पर सवार सोंधी खुशबू दसों दिशाओं में दूर-दूर तक चहलकदमी कर रही थी। वह सोंधी खुशबू एक फर्लांग दूर से ही सुनील बाबू की नाक से टकराने लगी थी। सुनील बाबू ने उसकी अनदेखी करने की भरपूर कोशिशें कीं लेकिन सफल नहीं हो सके। उनके लाख न चाहने के बावजूद उस सोंधी खुशबू के उद्गम स्थल तक पहॅंुचते-पहॅंुचते उनके पाॅंव अपने आप थम गए थे।

‘‘आइए बाबू जी....! कितने समोसे पैक कर दूॅं ?’’ उनको देखते ही मेंगाराम बोल पड़ा।

‘‘नहीं...नहीं समोसे नहीं चाहिए। मैं तो बस तुम्हारा हाल-चाल लेने के लिए रुक गया था।’’ यद्यपि कड़ाही के अंदर खदबदा रहे समोसों को देख कर मन ललचा रहा था मुॅंह में पानी भर आया था लेकिन अपनी जेब की पतली हालत के कारण सुनील बाबू ने साफ झूठ बोल दिया था।

‘‘अरे ! इस गरीब से कोई नाराजगी है क्या बाबूजी ? वरना ऐसा तो कभी नहीं हुआ कि आप इधर से निकले हों और हमारे समोसे न ले गए हों।’’

‘‘सही कह रहे हो तुम। समोसे तो मैं जरूर लेता। लेकिन वो क्या है कि पिछले कुछ दिनों से मेरी तबियत गड़बड़ चल रही है। दस्त लग रहे हैं। ड़ाक्टर ने तली-भुनी चीजें और मिर्च-मसाला खाने से मना कर रखा है इसलिए...।’’ सुनील बाबू ने कहा और वहाॅं से चलने के लिए ज्यों ही कदम बढ़ाया कि पीछे से आवाज आयी-‘‘पापा ! ये सामानों की लिस्ट।’’

मुड़ कर देखा तो पीछे हाथ में सामानों की लिस्ट पकड़े उनका बेटा राहुल खड़ा था। दरअसल हुआ यूॅं कि सुनील बाबू के घर से निकलने के बाद उनकी पत्नी जूठे कप-प्लेट उठाने आयीं तो उनकी नजर प्लेट के नीचे दबी सामानों की लिस्ट पर पड़ी।

‘‘राहुल ! सचमुच बहुत भुलक्कड़ हैं तुम्हारे पापा। देखो यह लिस्ट तो वे यहीं छोड़ गए हैं। जब लिस्ट ही नहीं ले गए हैं तो फिर सामान क्या ले आयेंगे ? वही करेंगे कि आधा-अधूरा सौदा ले कर आ जायेंगे। अभी दूर नहीं गए होंगे। जा तू दौड़ कर दे आ उनको।’’ उन्होंने लिस्ट थमा कर बेटे को दौड़ा दिया था।

पीछे-पीछे आए राहुल ने सुनील बाबू को समोसे की दुकान पर खड़े दुकानदार से बातें करते पाया। वह पापा के पीछे खड़े हो कर बातें सुनने लगा था और बात खत्म कर उनके आगे बढ़ते ही लिस्ट थमा कर घर लौट आया।

‘‘पापा मिल गए थे बेटा....?’’ राहुल लौटा तो सुनील बाबू की पत्नी ने पूछा।

‘‘हाॅं मम्मी.....पापा समोसे की दुकान पर खड़े दुकानदार से बातें कर रहे थे।’’

‘‘हाॅं....मुझको पक्का विश्वास था कि वे वहीं होंगे। बाकी सारा सामान भले ही भूल जायें तुम्हारे पापा लेकिन मेंगाराम का समोसा लाना कैसे भूल सकते हैं भला। कितने समोसे पैक कराए थे तुम्हारे पापा ने ?’’

‘‘नहीं मम्मी....पापा ने समोसे नहीं खरीदे। समोसा वाले ने पूछा तो पापा ने उससे कहा कि उनकी तबियत खराब है। उन्हें दस्त लग रहे हैं इसलिए ड़ाक्टर ने तली-भुनी चीजें खाने से मना किया है।’’ राहुल ने अपने पापा और मेंगाराम समोसे वाले के बीच हुयी सारी बातें ज्यों की त्यों मम्मी को बता दीं।

‘‘क्या कहा था तुम्हारे पापा ने ? उनकी तबियत खराब है....? दस्त लग रहे हैं...? ड़ाक्टर ने मना किया है....?’’ सुनील बाबू की पत्नी ने चैंक कर पूछा और उनके होठों पर मुस्कान तैर गयी।

‘‘हाॅं मम्मी....। पापा ने ऐसा ही कहा था सतोसे वाले से।’’

सुनील बाबू के इस सफेद झूठ के पीछे की असली वजह उनकी पत्नी खुद-ब-खुद समझ गयीं। वह लपकती हुयीं कमरे के अंदर गयीं और कपड़ों वाली आलमारी में बिछाये अखबार के नीचे छुपा कर रखे अपने चोरौंधा रुपयों में से पचास का एक नोट निकाल लायीं।

‘‘क्यों राहुल....मेंगाराम पाॅंच रुपए का एक समोसा देता है न ?’’

‘‘हाॅं मम्मी....।’’

‘‘तो ऐसा कर....तू दौड़ कर जा और अपने पापा के आने से पहले आठ समोसे खरीद ला। और सुन अगर पापा पूछें तो उनको बताना कि......।’’ सुनील बाबू की पत्नी ने बेटे के कान में फुसफुसा कर कुछ समझाया। माॅं की बात सुन खुशी में मगन बेटा पचास की नोट ले कर हवा की तरह दौड़ पड़ा।

समान ले कर बाजार से लौटे सुनील बाबू के सामने जब पत्नी ने प्लेट में दो समोसे और चटनी रखी तो वे एकदम से चैंक पड़े।

‘‘ऐं....? मेंगाराम के समोसे....? ये कौन ले आया भाई...?’’ खुशी मिश्रित कौतूहल में उन्होंने पत्नी से प्रश्न किया।

‘‘पापा ! आपको सामानों की लिस्ट दे कर मैं जब लौट रहा था तो रास्ते में मुझको पचास रुपए का एक नोट पड़ा मिल गया था। मैने सोचा कि फ्री में मिले पैसे से इंज्वाय करना चाहिए। अगर घर आ कर मम्मी को बतलाता तो ये रुपए मुझसे ले कर वह अपने बटुए में रख लेतीं। इसलिए मैंने ‘तुरंत दान महा कल्याण’ कर दिया। चालिस रुपए के आठ समोसे खरीद लिए और दस की टाॅफी। क्यों पापा, ठीक किया है न मैंने...?’’ सुनील बाबू की पत्नी के बोलने से पहले ही बेटा राहुल बोल पड़ा।

‘‘बिल्कुल ठीक किया है बेटे.....बिल्कुल ठीक किया। मुफ्त में मिले पैसे का इससे अच्छा इन्वेस्टमेंट हो ही नहीं सकता।’’ सुनील बाबू ने चहकते हुए कहा और समोसे तोड़ने लगे।

‘‘लेकिन आपको तो दस्त लग रहे हैं। ड़ाक्टर ने तली-भुनी चीजें खाने से मना किया है आपको।’’ सामने खड़ी उनकी पत्नी ने मुस्कुराते हुए कहा तो सुनील बाबू ठहाका लगा कर हॅंस पड़े।

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