इच्छा
कहानी
(वर्ष 2022 के रमाकांत कहानी पुरस्कार से सम्मानित कहानी)
मॉं की इच्छा, इच्छा के लिए पहेली बनी हुयी थी। सिर्फ इच्छा ही नहीं उसके पिता, तीनों बड़े भाई और दोनों भाभियॉं भी यानी पूरा परिवार माताजी के अनअपेक्षित रुख से चकित और हैरान था। कोई भी नहीं समझ पा रहा था कि माताजी आखिर चाहती क्या हैं। सभी की हैरानी की वजह यह थी कि माताजी उल्टी गंगा बहा रही थीं।
मध्यमवर्गीय परिवारों में सामान्यतया होता यह है कि बेटी के शरीर में यौवन के चिह्नों की झलक मिलते ही मातायें उसके विवाह के लिए चिन्तित हो उठती हैं। सवेरे-शाम उठते-बैठते, खाते-पीते, सोते-जागते हर समय पिताओं को टोकना शुरू कर देती है-‘‘ए जी, बेटी सयानी हो रही है और तुम हाथ पर हाथ धरे बैठे हुए हो ? ऐसे काम नहीं चलेगा....अभी से कहीं लड़का-वड़का देखना शुरू कर दो। जुग-जमाना ठीक नहीं है। कोई ऊॅंच-नीच हो जाए उससे पहले ही कहीं ठीक-ठाक घर, वर देख कर इसको ब्याहो और अपनी जिम्मेदारी से छुट्टी पावो।’’
लेकिन यहॉं तो स्थिति ठीक विपरीत थी। पिता जवान बेटी की शादी करके गंगा नहाने को आतुर थे और मॉ उसके विरोध में कमर कसे खड़ी थीं। बड़े भाई बहन के लिए लड़का देखने की बात करते तो मॉं उनको डपट देती थीं। माताजी बेटी की शादी की बात सुनते ही ऐसे भड़क उठती थीं जैसे लाल कपड़ा देख कर सॉंड़। अब इसे उल्टी गंगा बहाना नहीं कहा जाय तो भला और क्या कहा जाय।
इच्छा का परिवार जहॉं स्थापित था वह कस्बानुमा छोटा सा शहर अभी भी कस्बाई मानसिकता में ही जी रहा था। अभी भी वहॉं पिताओं की सरपरस्ती में चल रहे संयुक्त परिवार थे। अभी भी खुद की सोच और सुविधा पर समाज की सोच तथा लोक-लाज की चिन्ता हावी थी। अभी भी वहॉं बेटियों को अधिक पढ़ाने के बजाय उन्हें यथा शीघ्र ब्याह कर जिम्मेदारी से मुक्त हो लेना ही श्रेयस्कर समझा जाता था। इच्छा की सहेलियों की शादियों का सिलसिला उनके इण्टर पास करने के साथ ही शुरू हो गया था। बी0ए0 फाइनल तक पॅंहुचते-पॅंहुचते उसके साथ की लगभग सभी लड़कियॉं ब्याहता हो कर पढ़ाई-लिखाई से किनारा कर चुकी थीं। जिस साल इच्छा ने इण्टर पास की थी उसी साल उसके बड़े भाई ने अपने आफिस में नए नियुक्त हुए एक क्लर्क से उसकी शादी की बात चलाई थी। लेकिन माताजी ने बात को सिरे से खारिज कर दिया था-‘‘नहीं, कोई जल्दबाजी नहीं है इच्छा की शादी करने की। अभी पढ़ने-लिखने दो उसको। शादी कहीं भागी जा रही है क्या ? बी0ए0 पास कर लेगी तब देखा जाएगा।’’ इस प्रकार मॉं के हस्तक्षेप के कारण इच्छा की शादी दो सालों के लिए टल गई थी।
अपनी मॉं जानकी देवी की आखिरी संतान इच्छा उनकी लाड़ली बेटी थी। भाभियॉं तो इस घर में बाद में आयी हैं, इसलिए उनको अंदाजा नहीं है लेकिन जानकी देवी के पति और तीनों पुत्र इस बात को बखूबी महसूस कर रहे थे कि इच्छा के जन्म के बाद से जानकी देवी के हाव-भाव, बात-व्यवहार और बोल-चाल के लहजे में बहुत तेजी से बदलाव आया था। बेटी का नाम भी उन्होंने सभी की इच्छाओं को दरकिनार कर के अपनी मर्जी से रखा था ‘इच्छा’। वरना पापा तो बेटी की आम की फॉंक सरीखी बड़ी-बड़ी ऑंखों को देख कर उसका नाम ‘सुनयना’ रखना चाहते थे। बड़े भाई ने नाम सुझाया था ‘बरखा’ और बनारस वाली मौसी ने ‘पूजा’। लेकिन जानकी देवी ने किसी की भी नहीं सुनी थी।
‘‘देखो जी, बहुत साध थी मेरी एक बेटी के लिए। इस बच्ची ने मेरी साध, मेरे मन की इच्छा को पूरी की है इसलिए इसका नाम तो इच्छा ही रहेगा।’’ जानकी देवी के दो टूक फैसले ने बेटी के नामकरण पर सोच-विचार की सारी संभावनाओं पर विराम लगा दिया था। और इस प्रकार उसका नाम ‘कुमारी इच्छा’ मुकर्रर हो गया था।
इच्छा जैसे-जैसे बड़ी होती गई, जानकी देवी उसको ले कर उतना ही अधिक सजग, सतर्क और आग्रही होती चली गईं। इस हद तक पजेसिव कि यदि उनका वश चले तो कंगारू की भॉंति उसको हर समय अपने पेट की थैली के अंदर लिए फिरें। न सिर्फ इतना बल्कि वह इच्छा को स्त्रीयोचित संस्कारों यथा कढ़ाई, बुनाई, सिलाई, चौका-चुल्हा, पकाने, खिलाने तथा गाने, बजाने आदि कार्यों से भी यथा संभव दूर ही रखती थीं।
खुद जानकी देवी के हाथों में तो जादू था। साल के तीन सौ पैंसठ दिन वह कोई न कोई नया व्यंजन बनाती ही रहती थीं। कभी बड़ी तो कभी पापड़, कभी अदौरी तो कभी मुंगौड़ी, कभी तिलवा तो कभी कसार, कभी लड्डू तो कभी मुरब्बा, कभी ठेकुआ तो कभी मठरी। आलू, गोभी, गाजर, मूली, सेम, मटर से ले कर मिर्चा, आम, कटहल, अमरख, ऑंवला, अमड़ा, नींबू, अदरक, सूरन, सिंघाड़ा आदि कोई भी ऐसी चीज नहीं थी जिसका स्वादिष्ट चटपटा अचार वह न बनाती हों। लेकिन बेटी को वह इन कामों के निकट फटकने तक नहीं देती थीं।
‘‘मम्मी, यह तुम्हारा सेम का अचार तो बहुत चटकदार है। कैसे बनाती हो इसे, मुझको भी बताओ न।’’ इच्छा ने एक दिन सेम के अचार का टूकड़ा चाटते हुए कहा था। सुनना भर था कि जानकी देवी एकदम से फट पड़ीं-‘‘क्यों...? पढ़ने-लिखने या कोई और ढ़ंग का काम करने को नहीं रह गया है क्या जो अचार बनाना सिखोगी ? कोई जरूरत नहीं है यह सब सीखने की। आजकज हर तरह का अचार, मुरब्बा बाजार में बना-बनाया मिल जाता है। तू तो बस, चुपचाप अपनी किया पढ़ाई कर।’’
इच्छा जैसे-जैसे बड़ी और समझदार होती गई, जानकी देवी और भी अधिक तनती गईं, दृढ़ होती गईं, बेखौफ और बेलौस होती गईं। मानो इच्छा के बड़े होने के साथ-साथ उनके अंदर की स्त्री भी बड़ी हो रही हो, इच्छा के समझदार होने से उनकी खुद की समझदारी बढ़ रही हो या कि इच्छा के ताकतवर होने से स्वयं उनको ताकत मिल रही हो। इसके साथ ही एक और विरोधाभास पैदा हो गया था जानकी देवी के स्वभाव में। साधारणतया देखा यह गया है कि मातायें बेटियों के मुकाबले बेटों के प्रति अधिक ममतालु होती है। लेकिन यहॉं इसका उल्टा था। इच्छा के पैदा होने के साथ ही जानकी देवी ने अपनी सारी चिन्ता, सारी ममता और सारा प्यार-दुलार समेट कर सिर्फ और सिर्फ बेटी के ऊपर न्यौछावर कर दी थी। भाई और भाभियॉं तो दूर पिता की भी मजाल नहीं थी कि इच्छा को कुछ कह कर निकल जायें। इच्छा को समझाना हो, दुलराना हो या फिर ड़ॉंट-ड़पट करना हो, जानकी देवी ने सारा अधिकार अपने हाथों में सुरक्षित कर रखा था।
इच्छा अब बी0ए0 फाइनल इयर में थी। दो-तीन को छोड़ कर उसकी सभी सहेलियों की शादियॉं हो चुकी थीं। कई तो बाल-बच्चेदार भी हो चुकी थीं। इच्छा ने घर में सुन रखा था कि बी0ए0 के बाद उसकी शादी कर दी जाएगी। इसलिए वह खुद भी मानसिक रूप से शादी के लिए तैयार होने लगी थी। पिताजी ने भी वर की तलाश में भाग-दौड़ शुरू कर दी थी। एक जगह बात आगे बढ़ी और फोटो की पसंदगी के बाद लड़की देखने-दिखाने की स्थिति तक पॅंहुच गई। लेकिन तभी जानकी देवी ने एकाएक पलटी मार दी।
‘‘नहीं, अभी नहीं करनी है इसकी शादी। पहले बेटे की करो फिर इसकी सोची जाएगी। अभी और आगे पढ़ायेंगे अपनी बेटी को।’’ जानकी देवी ने अपना निर्णय सुना दिया।
‘‘अरी ! तुम पागल हो गयी हो क्या ? जवान बेटी को तुम आखिर कब तक घर में बिठाए रखोगी। और अगर इसे आगे पढ़ना ही होगा तो शादी के बाद भी तो पढ़ लेगी। अभी तो इसकी शादी कर के मुझे छुट्टी पाने दो।’’ पिताजी ने समझाने की कोशिश की।
‘‘शादी के बाद यह तुम्हारे वश में रह जाएगी क्या जो आगे पढ़ाओगे। इसके ससुराल वालों ने अगर पढ़ाने से मना कर दिया तो ? बीस साल की बेटी की शादी की चिन्ता में तो दुबले हुए जा रहे हो लेकिन सत्ताइस साल का कुॅंवारा बेटा नहीं दिख रहा है तुमको ? अगर बहुत समधी बनने का शौक चर्राया है तो बेटे की शादी कर लो। बेटी मेरी है....मेरी मर्जी के बगैर नहीं होगी इसकी शादी। अभी दो साल तक तो कत्तई नहीं।’’ जानकी देवी एकदम से उग्र हो गयीं। घर के सारे सदस्य सन्नाका खा गए। कोई भी नहीं समझ पा रहा था कि उनके मन के अंदर आखिर पक क्या रहा है।
इच्छा की शादी पर जानकी देवी की इस बार की रोक घर के बाकी लोगों के साथ-साथ खुद इच्छा को भी बुरी लगी थी। कारण कि अब उसने अपनी शादी को ले कर सपने बुनना प्रारम्भ कर दिया था। उसकी समझ में नहीं आ रहा था कि मॉं आखिर उसकी शादी क्यों नहीं होने दे रही हैं। जुबान से तो उसने कुछ नहीं कहा लेकिन गुमसुम हो, अपने रूखे व्यवहार से उसने अपनी नाराजगी जाहिर कर दी थी। हर समय बेटी के साथ साए की तरह लगी रहने वाली जानकी देवी से बेटी के मन के भाव छुपे नहीं रह सके। वह समझ गयीं कि बेटी के मन में शादी के लड्डू फूट रहे हैं। और यह भी कि उनका विरोध करना उसको खराब लगा है। वह कई दिनोें तक उलझन में पड़ी रहीं कि बेटी उनके मन की बात को समझ क्यों नहीं रही है। कि बेटी को आखिर कैसे समझायें कि वह जो भी कर रही हैं उसकी भलाई के लिए ही कर रही हैं। आखिर एक रात सोते समय अकेले में उन्होंने बेटी के सामने अपना दिल खोल ही दिया।
‘‘देख इच्छा ! शादी तो तुम्हारी कभी भी हो सकती है। अभी नहीं तो दो साल बाद भी हो सकती है। लेकिन कुछ बनने के लिए, अपना भविष्य गढ़ने के लिए तुझे दोबारा समय नहीं मिलने का। मैं नहीं चाहती कि तुम्हारी भी मेरी जैसी ही दुर्गति हो। बहुत खतरा उठा कर, जान जोखिम में ड़ाल कर, लोगों के ताने और सभी का विरोध सह कर तुमको सिर्फ इसलिए पैदा किया था मैंने कि मेरी इच्छा जो पूरी नहीं हो सकी, उसे तुम्हारे जरिए पूरी होते देख सकूॅं।’’
जानकी देवी का गला भर आया, ऑंखें ड़बड़बा आईं, चेहरे पर बेचारगी के भाव उभर आए। मॉं की यह हालत देख कर दूसरी तरफ को करवट लिए लेटी इच्छा उठ कर बैठ गई। मारे आश्चर्य और कौतूहल के वह मॉं का मुॅंह देखने लगी।
जानकी देवी ने आगे कहना शुरू किया-‘‘क्या तुमने कभी यह सोचा है कि तुम्हारे भाइयों और तुम्हारे जन्म के बीच इतना अधिक फासला क्यों है ? सिर्फ एक बेटी की चाहत में मैंने तीन-तीन बेटे पैदा कर लिया था। अगर तुम पहली बार में ही पैदा हो गयी होती न, तो शायद मैं दूसरी औलाद भी नहीं पैदा करती। तुम्हारे बाप ने तो दो बेटों के बाद ही बोल दिया था कि बस, अब परिवार पूरा हो गया। लेकिन मैंने जिद की कि नहीं जी बेटी के बगैर कैसे पूरा हो सकता है परिवार। एक बेटी भी तो होनी ही चाहिए। बेटी की चाहत में मैंने तीसरी बार गर्भ धारण किया। लेकिन जब तीसरी बार में भी मेरी साध पूरी नहीं हुई, तुम्हारा तीसरा भाई आ गया तो सचमुच मैं बहुत निराश हो गई थी। धीरे-धीरे छः साल से भी अधिक का समय बीत गया लेकिन मेरे मन का कचोट नहीं मिटा। फिर तुम्हारे बाप की मर्जी के खिलाफ, ड़ाक्टर के लाख मना करने के बावजूद मैंने एक जूआ और खेला। बेटी की चाहत में एक चान्स और लिया। फिर तो मेरी बलवती इच्छा के सामने विधाता को भी झुकना पड़ा और तू आयी।’’
लेकिन तुम बेटी के लिए इतनी बावली क्यों थी मम्मी ? दूसरे लोग तो बेटियों को गर्भ में ही मरवा देते हैं। हमारे समाज में तो लोग बेटियों को बोझ मानते हैं और बेटे को कुलदीपक। फिर तुम आखिर बेटी ही क्यों चाहती थी ?’’ इच्छा ने कुछ-कुछ शिकायती लहजे में प्रश्न किया।
‘‘मैं अपने नुकसान की भरपायी करना चाहती थी इसलिए। अपने साथ हुई ज्यादती का बदला लेना चाहती थी इसलिए। परिवार में अपना पक्ष मजबूत करना चाहती थी इसलिए। बेटी में अपने को फिर से जीना चाहती थी इसलिए। अपनी अधूरी इच्छाओं को पूरा करना चाहती थी इसलिए। सर उठा कर जीना चाहती थी इसलिए। तुम्हारे बाप को बराबरी में जबाब देना चाहती थी इसलिए।’’ जानकी देवी ने बोलना शुरू किया तो एक ही सॉंस में लगभग दॉंत पीसते हुए बोलती चली गयीं। अब उनकी ऑंखों में ऑंसू की जगह अंगारे थे, आवाज में दीनता की जगह दृढ़ता थी और चेहरे पर बेचारगी के स्थान पर आक्रोश के भाव थे। पल भर के भीतर ही मॉं के इस अचानक बदले रूप को देख कर इच्छा भी दंग रह गई।
‘‘और सुनना चाहती है तो ले सुन। मैं भी कभी बहुत सारे सपनों और हौसलों से लबरेज थी। अपने बूते कुछ अलग करने की तमन्ना थी मेरे मन में। सिर्फ बच्चे पैदा करने, उनके पोतड़े धोने, पकाने-खिलाने और अचार, चटनी, मुरब्बे बनाने तक सीमित नहीं रहना चाहती थी मैं। लेकिन अभी ग्यारहवीं में ही पढ़ रही थी कि तभी मेरी शादी कर दी गई। बहुत रोई, बहुत गिड़गिड़ाई कि कम से कम इण्टर तक तो पढ़ लेने दो मुझे लेकिन मेरी किसी ने नहीं सुनी। मेरे मॉं-बाप ने कहा कि शादी के बाद पढ़ लेना। शादी के बाद तुम्हारे बाप से बहुत मिन्नतें की मैंने कि मुझे पढ़ना है....आगे बढ़ना है....कुछ बनना है तो साल बीतते-बीतते उन्होंने मुझे एक बेटे की मॉं बना दिया। फिर तो इस दलदल में आहिस्ता-आहिस्ता धॅंसती ही चली गई। मैं कत्तई नहीं चाहती कि तुम भी मेरी तरह ही चौके-चूल्हे और घर-गृहस्थी की भूल-भुलैया में खो कर खतम हो जाओ। तुझे मेरी कसम है बेटी......जितना पढ़ सकती हो पढ़ना, स्वावलम्बी बनना और जब समाज में बराबरी से सर उठा कर चलने के लायक हो जाना तभी शादी के बारे में सोचना।’’
यह क्या ? अपनी बात के इस छोर तक आते-आते फिर से जानकी देवी का स्वर भीगने लगा था, ऑंखें ड़बड़बाने लगी थीं और चेहरे पर बेचारगी के भाव पसरने लगे थे। अवाक् इच्छा कुछ देर मॉं को एकटक देखती रही, देखती रही, देखती रही फिर अचानक उठी और उनको अपनी बाहों में भर कर फफक् पड़ी।